बड़े दिनो बाद आयें है मुखातिब होने...............

दुनिया की भागदौड़ के बीच वक्त निकालना कुछ मुश्किल सा हो गया है फिर भी निकाल ही लिया आप जैसे अपनो के लिये। दिल कहता रहा पर जुबान साथ नही देना नही चाहती इसका क्योंकि जुबान भी उन लोगों की भीड़ मे शामिल होना चाहति है जो सब कुछ देखकर भी खामोश है उस असहाय किसान की तरह है जिसे साहूकार चूस रहा है और इसका किसान को मालूम भी है और वह कुछ कर भी नही सकता। मुझे कालेज वक्त की एक बात याद है,और वो जोश याद है लेक्चर सर का जिसमें उन्होंने कहा था कि बँध के रहना जानवरों की श्रेणी में उपयुक्त है ये मानवीय प्रकृति का गुण नही है। और मैं मानवीय जीवन जीना चाहता हूँ। मैं भी परिवर्तन चाहता हूँ जो इन दिनों समाज मे होना ही चाहिये। और आप?

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